Friday 19 April 2019

"ख़ूबसूरत खरपतवार इंसानियत"


"ख़ूबसूरत खरपतवार"

"इंसानियत ख़ूबसूरत खरपतवार की तरह
चाहे जहाँ उग तो आती है
पर जब ये हमारे स्वार्थ की फसल
के हिस्से की खाद खाती है
मेढें पार करके मुँह चिढ़ाने लगती है 
पहले उखाड़ी फिर सुखाई फिर जलाई जाती है
हमारे स्वार्थ की फसल न केवल खाद, उसकी राख भी खा जाती है
इंसानियत की कीमत पर स्वार्थ की फसल उग जाती है
ये इंसानियत, कमबख़्त जाने कैसे बची रह जाती है
बारिशों फुहारों के छूते ही जाग जाती है
उसकी ज़िद हमारी कोशिश जारी है
या हमारी ज़िद उसकी कोशिश जारी है"

~ ध्रुव प्रवाह (GJ) 

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